The Unadorned

My literary blog to keep track of my creative moods with poems n short stories, book reviews n humorous prose, travelogues n photography, reflections n translations, both in English n Hindi.

My Speech

==========================================
On 15-09-2009, "नई धारा" the sixty-year old Hindi literary magazine of Patna had organised a function to introduce me to some Hindi short-story writers of repute at Patna. It was quite an inspiring experience to me to see the stalwarts generously praising my stories from my book "विरासत" . Among them I can recall a few names: Shri Harish Pathak, the noted Hindi Story Writer and the Editor of the Rashtriya Sahara, Dr. Ramsovit Prasad Singh, the Director of Sinha Library, Shri Samuel Ahmed, the noted Urdu and Hindi fiction writer, Shri Ram Yatan Singh, Dr. Usha Kiran Khan, Dr. Jitendra Sahay, Shri Madhukar Singh, Shri Braj Kishore Pathak, Dr. Kalnath Mishra, Dr. Shaileshwar Sati, Dr. Asha Singh, Dr. Sambhu Sharan Sinha, Mr Rajesh Shukla. I was called upon to say something and I was ready with a prepared speech. After reading it out, I left the microphone to the literary people present there to deliberate. The next day's newspapers of the city published the news. I could collect copies of at least three of them, the Rashtriya Sahara, the Hindustan, the Dainik Jagaran. They had published the news in substantial detail with the photograph of the function. I thought I should publish my speech in my blog for whatever it is worth.
============================================
सुधीवृन्द

मेरे लिए यह बेहद खुशी का मौका है कि मेरी किताब "विरासत" पर विचार देने हेतु आज इतने विद्वान यहाँ पधारे हैं। जाने-अनजाने में मैंने कहानियाँ अवश्य लिख डाली पर अभी भी डर मेरा पीछा नहीं छोड़ता। डर इसलिए है कि मैंने प्रयोगशाला में जो नतीजा एक बार देख लिया है, क्या फिर उसे दोहरा सकूँगा? खैर, मुझे यह भूलना नहीं चाहिए कि मैं कोई वैज्ञानिक प्रयोग नहीं कर रहा हूँ, बल्कि कहानी ही लिख रहा हूँ।
जाने-माने कथाकार श्रीमान रस्किन बांड ने कहीं एक बार कहा था कि लेखक दिखना नहीं चाहिए; सिर्फ लेखक की कृति ही पढ़ी जानी चाहिए। खैर, बांड साहेब को यह बात भी मालूम होगी-जो दिखता है वह बिकता है।
फिर, लेखक के पास कहने की काबिलियत हो, यह भी ज़रूरी नहीं। उसे हमेशा डर सताता रहता है कि उसने लिख कर अपने लिए जो भी नाम कमाया, बस एक ही उदगार में वह कहीं समाप्त न हो जाए।
लेखक दिखेगा नहीं, बोलेगा नहीं, तो फिर उसका क्या काम है? लिखो और भूल जाओ? समझने दो पाठक को जो समझना है? भला, आजकल के जमाने में कोई कुछ भी बनाए, उसके लिए वह एक साल या उससे अधिक अवधि की गारंटी तो देता है न? सो लेखक को भी उत्पादनौपरांत तमाम काम करने चाहिए, जैसे कि अगर कोई उसके लेख को समझ नहीं पाता है तो लेखक ख़ुद जा कर उसे समझाए। उपभोक्ता सर्वोपरि--क्या यह उसूल साहित्य के क्षेत्र में लागू नहीं होना चाहिए? भाई, वो जमाना चला गया जब लेखक यह कह कर भाग जाता था, "स्वांत: सुखाय...."
मेरे सामने दूसरा सवाल यह है कि लेखक किस हद तक एकांत में रहे और किस हद तक मिले-जुले? जब महाकवि जयदेव यह तय नहीं कर पाए थे कि श्री राधा का पैर क्या भगवान श्री कृष्ण के सर पर होने चाहिए, तो भगवान ने स्वयं आ कर इस दुविधा को मिटाया था और लिख दिया, "स्वरगरल खंडनं मम सिरसी मंडनं देही पदपल्लवमुदारम"। आजकल भगवान के लिए हम सब मिल कर इतने सारे समस्याएँ बटोर लिए हैं कि बेचारे के पास इतने समय है कहाँ कि वह कवि-लेखकों की ज़रूरत पर आएँ और उनके हाथ पकड़ कर दिव्य रचनाएँ लिखवा दें । तो फिर लेखकगण एकांत में बैठ कर सिर्फ़ प्रेरणा की टोकरी ढ़ोने से काम कैसे बनेगा?
सो लेखक को बाहर जाना चाहिए, पर किस हद तक? क्या वह केवल इर्द-गिर्द टहले और जब कुछ मतलब की चीज़ मिल जाए तो उसे समेट ले? या उससे ज्यादा चक्कर लगाए ताकि उसे कोई कदरदान मिल जाए? या उससे भी अधिक, जैसे कि सक्रियतावाद यानी कि आक्टिभिजिम की उबलती हुई कढाई में डुबकी लगाए? देखिए, "महाजन: येन गत: स: पन्था"। मतलब, वही कहिए जो बड़े लोगों ने कहा या बड़े लोगों को भाया। अगर भारत के बारे में कहना है तो, इसकी गरीबी के बारे में कहिए, "The Area of Darkness", या यहाँ के मदारियों के बारे में, इसके सिवाय और कुछ नहीं कहिए क्योंकि विदेश में यह पढ़ा नहीं जाएगा। अगर ख़ुद को प्रगतिशील होने का दर्जा दिलाना है तो आज के किसी ताज़ा "ism" को अपनाइए, इससे रचनात्मक ख्याति अपने-आप बढ़ जाएगी। सो बाहर जानेका मतलब पहले से ही तय हो जाना चाहिए--क्या ख़ुद से कुछ पल के लिए बाहर हो जाना है, जैसे शंकराचार्य ने एक बार किया था, या बाहर का समवेत गान में ऐसे शरीक होना है जिसे हम आज की दुनिया का तकाजा मानते हैं।
फिर एक सवाल। कुछ नया लिखा जाए, पर कैसे? इस बात पर मुझे एक और बात याद आ रही है? एक बार जावेद अख्तर साहेब ने व्यंग से ही कहा था कि फिल्मों के लिए लिखने वाले कुछ ऐसा लिखें कि वह बिल्कुल नया हो पर वह पहले से परखा गया भी हो। बात तो वही निकली न? ऐसा लिखा जाए कि लोग उसे पहले से ही जानते हों, जैसे कि, "Slumdog Millionaire" । उसे सिर्फ़ "The Millionaire" कहा जाता तो क्या बात नहीं बनती? खैर, लोग अब तक भूलें नहीं हैं कि एक ज़माने में हमें कुत्तों के बराबर का दर्जा नसीब था और आज उन लोगों के सामने जाने के लिए हमें जानवर के खाल में ही होना चाहिए, जिस्म पर विष्ठा का लेप भी होना चाहिए। और क्या?
हो सकता है, इस दुनिया में कुछ नया नहीं है, तमाम चीज़ पहले से ही मौजूद हैं। लिखने के मामले में हम सिर्फ़ विधाएँ बनाते हैं। पद्य थे, फिर गद्य आ गए और बड़े-छोटे में फर्क करते-करते हम विधाओं की सीमांकन करते गए। अब तक थके नहीं। गद्य को पद्य कह कर उसे आधुनिक बना दिया, पर गौर करने पर यह तो सदियों पुरानी विधा ही मालूम पड़ती है। मैं दंडी द्वारा रचित "दस कुमार चरित" से पड़ता हूँ, "कुमारा: माराभिरामा रामादौ पुरुषा: रुषाभष्मीकृतरयो रयोगोपहसितसमीरणा रणाभिजानेन अभ्युदय स्म"। सो हमलोग आज आधुनिक कविता में जो अंदरूनी तुकबंदी यानी internal rhyming की बात करते हैं, वह तो ईसापूर्व दूसरी सदी में भी थी और गद्य के रूप में ही थी।
सो क्या मैं इसे मानूँ कि नया कुछ नहीं होता है, नया का मतलब पुराना ही होता है?
अगर साहित्य इंसानों के द्वारा है और इंसानों के लिए है, तो पहले से तय हो जाना चाहिए कि क्या इंसान सचमुच प्रगति कर रहा है? फिर हमें जवाब मिल जाएगा, क्या साहित्य की भी प्रगति हो रही है या नहीं। बड़े लोग यह मानते हैं कि हाँ, इंसान प्रगति कर रहा है। डायनौसोर जैसे इंसान की समाप्ति नहीं होगी चूँकि इसके पास बुद्धि है। वह अतिमानव का रूप लेने जा रहा है और इस प्रकार उसे बीमारी, तनाव, भय और तमाम अनिश्चितताओं पर विजय हासिल होने वाली है। ज़मीनी हकीक़त क्या सचमुच ऐसी है? सबको आज एटमी हथियार चाहिए, सभी चाहते हैं कि हम शान्ति की तरफदारी करेंगे तब, जब और लोग हमें सबूत दिखाएं कि उन्होंने भी शान्ति को अंगीकृत कर लिया हैं। क्या लगता नहीं कि एक दिन कुछ न कुछ अनहोनी ऐसे ही घट जाएगी?
अंत में कवि T. S. Elliot की उक्ति को उद्धृत करता हूँ,
This is the way the world ends
This is the way the world ends
This is the way the world ends
Not with a bang but a whimper

============================================
By
A. N. Nanda
Patna
17-09-2009
============================================