A New Poem
Today we had a wonderful poetic evening amidst talented poets, a kavi sammelan. I had my contribution too. This time my poem did not come out of the cauldron of translation. It is a direct composition in Hindi. I enjoyed writing it and then reciting it amidst applause; but I must say the more soul-stirring experience to me was to listen to others. Dr Nandkishore Nandan, the revered chief guest was at his best, as always. He was transformed into a 70-year young, the captain of the street cricket team playing at Ridge Shimla stirring his muse to produce the freshest poem in his repertoire. He had romantic and rebellious poems too, his heart weeping in pain seeing mother Nature disregarded, over-exploited and fast heading towards an ominous future; the condition of deprived sections of the society going from bad to worse every passing day. Dr Saraswat had the grace of a poet in all his gestures, not only restricted to the words and expressions he used in his nice poems of spiritual theme. Dr Usha Bande had an English poem to render--so full of sensitivity, struggle and hope! Dr Pankaj Kapoor had a awesome simile to depict the trivialisation in human relationship: there's no iron in our blood so that the magnet of human warmth can attract us each other. How true! Mr Ratiram Sharma had his muse drawn from the herdsman of Himalayas who have hard lives to live but leaving the footprints of wisdom behind them everywhere they moved. Madam Sangeeta recited a poem that sparked in her mind finding winter this year so obstinately prolonging even up to the end of March, one that slightly matched my last post, not in words but in spirit. Poets of Shimla feel and think alike! it was a wonderful evening at the end of the day.
Here is what I recited.
Here is what I recited.
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नंगे पाँव
देखा तो नहीं, फिर भी जानता हूँ मैं भली-भाँति
मेरे अपने जन्म का वृतांत, निहायत कोरा-सा
निर्बल, निर्वस्त्र, परन्तु निसंकोच, निधड़क, गुमनाम
ऐसे क्यों ?
मालिक से मिले आदेश, शायद भुलना कठिन था
बस, चलना तो था, और चलता ही रहा ।
जूतों के बगैर मैंने काम तो बड़ा किया
बड़ी-सी छलांग लगाई, इस धरती पर आ टपका,
कोई फरक न पड़ा, एक भी अंग न टूटा
माँ का दुलार मिला, चलने का हक मिला
नदी में तैरना हुआ, और पेड़ों पर चढ़ता गया
आखिर जूतों के वगैर मैंने सब कुछ तो कर ही लिया !
वाह! जूतों के वगैर मैंने सब कुछ तो कर ही लिया!
मुझे याद है उस बुजुर्ग को मरते हुए देख
अरसे बीत गए हैं पर याद मेरी अब भी ताज़ी है
बुजुर्ग लपेटे गए थे कपड़े बिलकुल नए थे
गोरे-से ललाट पर, रोड़ी-चन्दन के लेप थे
अंगूठी चाँदी की थी और कंधे से जनेव लटके
पर नहीं थे जूते, पैर उनके बेजान ही थे ।
स्वर्ग में जाकर उस बेचारे ने क्या-क्या किया होगा.
खुदा ही जाने क्या-क्या किया होगा
इतनी दूरी थी फिर भी उन्हें पैदल वहाँ जाना था
स्वर्ग है, कोई मामूली इलाका तो नहीं
आड़े-तिरछे हाईवे, ट्रैफ़िक लाईटें बेसुमार होंगे
वहाँ के रास्ते पर क्या गद्दे सब फैलाए गए हैं?
बड़े धार्मिक स्वभाव के थे वे फिर भी
मान लो सिर्फ एक मिनट के लिए
अगर रास्ता भटक गए होंगे वे नरक की दिशा में
वहाँ का माहौल कुछ अच्छा नहीं,
जैसा लोगों से सुना है मैंने
जूतों के वगैर वहाँ क्या वे करते होंगे ?
स्वर्ग में जा कर या नरक की ओर भटक कर
जूतों के वगैर वहाँ क्या वे करते होंगे ?
जूते तो, ऐसा लगता है, स्वर्ग के आभूषण हैं
भरत ने सही चुना था रामजी को पूजने ।
इस धरती पर जूतों का क्या काम है ?
सिर्फ इंसान की आदत बिगाड़ना उसे खूब आता है
जूते तो केवल लात मारने के काम आते हैं,
थप्पड़ की खड़खड़ाहट दूर-दूर तक सुनाने में
घास, फूल-पतियों को रौंद डालने में
गले में जूतों का हार लटका कर
बड़े चोर द्वारा
छोटे चोर का बतंगड़ बनाने में
सिवाय उसके
इस धरती पर जूतों का क्या काम है ?
आवेश में आ कर, इतने अनुराग से
भई, जूतों की इबादत तो करते हो
दूसरों के जूते ख़ूब चमकाते हो,
दूसरों के जूते भी चाट लेते हो
कहाँ जाओगे इन्हें पहन कर?
हर जगह तो अब ट्रैफ़िक जाम है
इंसान के लिए केवल ज्ञान का धाम खुला है
वहाँ तक पहूँचने के लिए नंगे पाँव तो जाना है
फिर जूतों का क्या काम है ?
इस धरती पर जूतों का क्या नाम है ?
जूते, चमड़े से तो बनते हैं, हम सब जानते हैं
पर किसके थे ये चमड़े?
बेज़बान जानवर वे जो पगडण्डी चाटते हैं
सबके लिए सोचते है, ख़ामोशी से
सबकी भलाई चाहते हैं, दिल से,
दधिची का हमारे लिए अपनी अस्थियों का त्यागना
हम बड़ी आसानी से उसे भूल जाते हैं
जूते, चमड़े से तो बनते हैं, हम सब जानते हैं ।
कैसे विचार हैं देखो मालिक के
घोड़ों को, गाय को—सबको पैदाइशी मिल गए जूते
पर आते-आते इंसान की बारी, उनके स्टाक ख़त्म हो गए
कहने लगे, ‘अरे नर ! जानते नहीं, ज्यादा लालच बुरा है ?
बुद्धि, विवेक, सब कुछ तो झपट लिया झोली भर-भर कर
करोगे क्या इतना सिवाय सन्दूक में भरने के
अब जूतों के लिए इतना हंगामा क्यों है ?
ज्ञान के बूते दो कदम फालतू चलने में तुम काबिल हो
बस, जूतों की माँग को छोड़ उतने में खुश रहो
ज्ञान तक पहुँचने के लिए ज्ञान की पूँछ पकड़ो
वहाँ तक जाने के लिए सूट-बूट की क्या ज़रुरत ?
भूल जाओ है यह महज़ घटिया-सा अवसरवाद
जूतों के वगैर लिये हो जनम
और मरना ही होगा नंगे पाँव ।’
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By
A N Nanda
Shimla
8-4-2014
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