रिहाई
रि हा ई
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सुबह के शीतल समीर से मुग्ध मन
अपने आप को कुछ देने के लिए बेताब...
भूले-बिसरे सपनों से अगर एक भी पंखुड़ी
बच कर कलम तक आ पहुंचे
बस काफ़ी है, मंजूर है मुझे
न किसी तुक बंदी की पावंद हो वह
न किसी विन्यास की भूख हो उसमें ।
छंद ऐसा हो...
समझने वाले पढ़ें, आज़मा लें अपनी-अपनी आरज़ू से जोड़कर
भाव से भीगा हुआ...लफ्ज़ भूल जाएँ पर लय ठहर जाए
आवेग ऐसा हो, आह्वान हो इस क़दर
एकांत में दुलारने के लिए काफी
अनकही बातों को पंख लगा दे
फिर से सपने में प्रकट हो जाए ।
खुद पर रहम करना चाहता हूँ...
कुछ देने के लिए मन है, पर औकात नहीं
लोकाचार ही तय करता है लफ़्ज़ों की गहराई
कहना चाहता हूँ मैं, माँगना भी चाहता हूँ
भेंट चढ़ाना चाहता हूँ, दे कर दीन-हीन हो जाऊं
मेरा वजूद भी मिट जाए, कबूल है मुझे
पर यह कैसी कायरता, मज़बूर हूँ मैं
देने की ख्वाहिश है मन में
पर भयभीत हूँ मैं ।
सुबह के शीतल समीर से मुग्ध मन
अपने आप को कुछ देने के लिए बेताब...
सोचते-सोचते शाम ढलने को है अब
क्या मैं अपने आप पर रहम कर सकता हूँ?
या फिर से सपना आने तक करना होगा इंतज़ार?
अथवा अँधेरे में खुद को संभाल कर
लफ़्ज़ों को पुनः परिभाषित करना होगा?
सारी रात, नीरवता--मेरी हमराही के सानिध्य में
चारों ओर बिखरी भीनी-भीनी खुशबू से मदहोश,
दूर-दूर से बहते आए मार्मिक संगीत से मंत्रमुग्ध,
हँसते हुए तुम्हारे नूरानी चेहरे को याद कर
क्या कविता-कलम-कायरता से जूझ लूँ,
या फिर से, कल की किस्मत के इंतज़ार में
या फिर से, कल की किस्मत के इंतज़ार में
एक नई सुबह की राह देखूँ ?
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By
A. N. Nanda
Shimla
3-12-2014
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