The Unadorned

My literary blog to keep track of my creative moods with poems n short stories, book reviews n humorous prose, travelogues n photography, reflections n translations, both in English n Hindi.

आधा उत्तर

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मेरी पिछली पोस्ट एक छोटी-सी कहानी थी, अंग्रेज़ी में। अच्छा लगा यह देखकर कि आप सबने उसे पसंद किया। अब वही कहानी आपके लिए हिंदी रूप में प्रस्तुत है। उम्मीद है आप इसे भी पढ़ेंगे और अपने विचार ज़रूर साझा करेंगे। आगे चलकर सोच रहा हूँ कि ऐसी कहानियों को एक संग्रह के रूप में छापा जाए। यह संग्रह अंग्रेज़ी में हो या हिंदी में — यह आप सबकी प्रतिक्रिया ही तय करेगी।

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आधा उत्तर

कुछ सवाल ज़िंदगी भर अधूरे रह जाते हैं। हमारे गाँव का यह परिवार मुझे बचपन में एक ऐसा ही आधा उत्तर देकर चला गया—जिसका शेष भाग अब भी एक चुप्पी बनकर साँस ले रहा है।

हमारे गाँव में एक परिवार रहता था — पिता, माँ, बड़ा बेटा और बेटी। उनके पास न तो ज़मीन थी जिसे जोता-बोया जा सके, न खेत मज़दूरी से कमाई करके घर लाने को कुछ। वे खेतों में दिहाड़ी मज़दूरी करने से इनकार करते थे, इसलिए लोग उन्हें हँसी-ठट्ठे में कामचोर” कहने लगे — यानी काम चुराने वाले। लेकिन जहाँ काम ही कम हो, वहाँ कोई भला काम कैसे चुरा सकता है? यह शब्द अर्थहीन था, एक निर्दयी ठप्पा।

असल में, काम ही दुर्लभ था। उन दिनों खेत केवल आसमान पर भरोसा करते थे; किसान की सिंचाई बस बारिश थी।

तो फिर यह परिवार अपना चूल्हा कैसे जलाए रखता था? बचपन में मुझे इसका केवल आधा उत्तर मिला। वे दूसरों के तीस मवेशियों को चराने ले जाते थे। भोर होते ही जानवरों को खुले आसमान के नीचे चराने ले जाते। दोपहर तक झुंड को वापस बाड़े में ले आते। और इस सेवा के बदले उन्हें एक अजीब-सी मज़दूरी मिलती — हर जानवर पर महीने का एक भोजन। यानी कुल तीस भोजन।

अगर यह काम कोई अकेला करता, तो महीने भर रोज़ मालिकों के घर जाकर खा सकता था। लेकिन मज़दूरी चारों ने बाँट रखी थी। इसलिए वह एक भोजन वे खेत में ले जाते और चार हिस्सों में बाँटकर बिना शिकवे-शिकायत खा लेते।

नक़द आमदनी होती थी 150 महीने की — हर जानवर पर 5। यह क़ीमत बस इतनी थी कि 2.50 किलो के हिसाब से साठ किलो चावल ख़रीद सकें। यानी रोज़ दो किलो चावल, बशर्ते और कुछ न ख़रीदें। रात का खाना किसी तरह एक ढंग का बन पाता; दोपहर का भोजन तो बस एक चौथाई हिस्से में सिमट जाता, गणना के हिसाब से। सब्ज़ी के नाम पर वे कहीं से हरी पत्तियाँ तोड़ लाते या बरसाती खेतों में भटकती कोई मछली पकड़ लेते। और नमक — कभी तेल या मसाले — के लिए गाँव की दुकान पर 100 या 200 ग्राम अपने कीमती चावल देकर अदला-बदली कर लेते, स्वाद के लिए भोजन का बलिदान करके।

यही मेरे प्रश्न का आधा उत्तर था, बल्कि मेरी जिज्ञासा का। बाक़ी आधा अबूझ रहा। मवेशी चराना तो बस जुलाई से दिसंबर तक चलता था। जनवरी से जून तक खेत सूने रहते और मवेशी खुले घूमते। तब इस परिवार का गुज़ारा कैसे होता था?

मैं कभी नहीं जान पाया। अब, उम्रदराज़ और सफ़ेद होते बालों के साथ, जानना भी नहीं चाहता।

चारों बहुत पहले ही चले गए — शायद केवल समय से नहीं, बल्कि शरीर में उतरते धीमे अकाल से।

अनुत्तरित आधा हिस्सा आज भी एक असहज ख़ामोशी बना हुआ है।

 

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By

अनन्त नारायण नन्द 

18-8-2025 

भुवनेश्वर 

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