गोल चक्कर
गोल चक्कर
जब हम
बच्चे थे—फिर किशोरावस्था में पहुँचे—तो हमें स्कूल में ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण’
विकसित करने की शिक्षा दी जाती थी। घर में, हालाँकि, वातावरण रस्म-रिवाज़ों, परम्पराओं
और अंधविश्वासों से भरा हुआ था। हममें से कई लोगों के लिए यह विरोधाभास उलझन पैदा
करता था। फिर भी, न्यूनतम प्रतिरोध
के सिद्धांत का पालन करते हुए, अधिकांश ने घर में
कही गई बातों को चुपचाप स्वीकार कर लिया और अपनी युवावस्था उसी के अनुरूप ढाल ली।
उनमें से कुछ, जो अब मेरी ही उम्र के हैं, आजकल सोशल मीडिया पर यह दावा करते नहीं थकते कि प्राचीन भारत में हमारे
पास इंटरकॉन्टिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइलें, हवाई
जहाज़,
अंतरिक्ष यान, कृत्रिम
बुद्धिमत्ता, जीन अभियांत्रिकी, कृत्रिम अंग और यहाँ तक कि क्वांटम कम्प्यूटिंग भी थी—सूची का कोई अंत
नहीं।
बचपन में
मैं उनसे अलग था। मुझे सवाल करने की आदत थी—एक ऐसी आदत जिसे ‘अच्छे लड़के’ का
लक्षण कभी नहीं माना जाता। क्यों दो झाड़ू साथ रख देने से घर में झगड़े हो जाते? क्यों बड़े बेटे को दक्षिण की ओर मुँह करके खाना नहीं खाना चाहिए? क्यों मिर्च हाथ से देने पर रिश्ते बिगड़ जाते हैं? क्यों बनियान उलटी पहनने का मतलब होता कि जल्दी ही नए कपड़े मिलने
वाले हैं?
और क्यों अगर दो लोग एक साथ एक ही बात कह दें, तो इसे मेहमान के आने का संकेत माना जाता? क्यों, क्यों…और क्यों?
शौच के
लिए भी नियम थे। तब शौचालय नहीं थे, सबको
खेतों में जाना पड़ता था। मगर नियम था कि कपड़ा सूती नहीं होना चाहिए, ताकि उसकी ‘पवित्रता’ बनी रहे। बच्चों से तो कहा जाता था कि वे नंगे
जाएँ,
वरना कपड़े अपवित्र हो जाएँगे।
बेशक, तब की स्थिति किताबों में वर्णित पुराने ज़माने से कहीं बेहतर थी।
हमने फकीर मोहन सेनापति की कहानी रेवती पढ़ी थी, जिसमें उन्होंने
उस अंधविश्वास का व्यंग्य किया था कि अगर लड़की पढ़ेगी, तो उसकी विद्या से उसके माता-पिता मर जाएँगे—यही थी अंधविश्वास की
गहराई! और पीछे जाइए तो सती जैसी भयावह प्रथा मिलती है। अब हम विधवाओं को जलाते
नहीं,
लेकिन सती के स्थानों पर बने मंदिरों में अब भी पूजा-पाठ होते हैं।
तर्कवादी कहते हैं कि यह अतीत के अत्याचारों का महिमामंडन है।
कभी-कभी
मैं यह पूछने की हिम्मत कर बैठता कि भगवान की पूजा क्यों करनी चाहिए। ऐसे
‘धर्मद्रोह’ पर मुझे कठोर डाँट पड़ती। लेकिन कभी-कभी कोई बुज़ुर्ग मेरे स्वर के
कंपन को सुनकर ठहर जाता। वह समझ जाता कि मेरी अवज्ञा के पीछे असल में एक बच्चे की
मान्यता और स्नेह की भूख है, और उनकी
अनुपस्थिति ने मुझे बाग़ी बना दिया है। वह बड़े स्नेह से समझाता: “पूजा करने से, बेटा, जीवन की
अनिश्चितताओं से जूझने का भावनात्मक बल मिलता है।” उसके प्रेमिल शब्द मुझे पिघला
देते। मैंने मंदिरों में जाना और प्रार्थना करना भी आज़माया, पर उसका कोई ख़ास असर नहीं हुआ। धीरे-धीरे मेरे भीतर द्वैधता पनपने
लगी—आज आस्तिक, कल नास्तिक। न मैं ख़ुद को संतुष्ट कर
पाया,
न औरों को। जैसे कोई बाड़ पर बैठा दोनों ओर झाँकता रहे पर उतरने का
नाम न ले,
ठीक वैसा ही असमंजस में फँसा हुआ आत्मा मैं बन गया।
उन दिनों
की एक घटना आज भी मेरी स्मृति में ताज़ा है।
मेरा एक
दोस्त बाइमुंडी पढ़ाई-लिखाई और समझ-बूझ में कभी अच्छा नहीं माना जाता था। एक दिन
उसने कहा कि पिछली रात उसने अपने घर की गायों को इंसानी भाषा में बातें करते सुना
है। वे ओड़िया में बोल रही थीं—और वही भाषा वह जानता भी था।
आगे बढ़ने से
पहले,
यह बताना ज़रूरी है कि हमारी ‘बोलती गायें’ कहाँ रहती थीं। अन्य धार्मिक
परिवारों की तरह बाइमुंडी के घर की बनावट भी शास्त्रों के हिसाब से थी। गायें अलग
किसी गोशाले में नहीं थीं, बल्कि मिट्टी के
बने घर के पहले ही कमरे में रहती थीं। जो भी घर में प्रवेश करता, उसे परिवार के हिस्से तक पहुँचने से पहले गायों के कमरे से होकर
गुजरना पड़ता। यह व्यवस्था धर्मनिष्ठ जीवन और वास्तु-जैसी मान्यताओं के तहत थी। घर
में आते-जाते समय गोबर और गौमूत्र से पवित्र हुई ज़मीन पर कदम पड़ते। उसकी गंध घर
में बसी रहती। धीरे-धीरे परिवार उस गंध का अभ्यस्त हो गया—शायद वह उन्हें प्रिय भी
लगने लगी।
मच्छरों
की भरमार थी। वही मच्छर इंसानों और गायों दोनों को काटते। परिवार भूसी और पुआल
जलाकर धुआँ करता ताकि मच्छर भागें। उस धुँधले, तीखी गंध
वाले कमरे में एक दर्जन के क़रीब गायें रहतीं, जिनमें से
ज़्यादातर मुश्किल से एक-दो प्याली दूध ही देतीं। परिवार उन्हें मज़ाक में “टी-कप
गायें” कहता। यह श्वेत क्रांति से बहुत पहले की बात थी, जब संकर नस्लें नहीं आई थीं, जिन्हें
हवादार या वातानुकूलित गोशालाओं की ज़रूरत होती। गायों के साथ घर में आठ बच्चे, तीन बड़े और दो बुज़ुर्ग भी रहते थे। गोशाला उतनी ही आबाद थी जितना
परिवार।
जब बाइमुंडी
ने कहा कि उसने गायों की बातचीत सुनी है, परिवार
पहले जिज्ञासु हुआ, फिर चिन्तित।
जिज्ञासु इसलिए कि सब मानते थे—गायें रात में इंसानी आवाज़ में बोलती हैं—पर किसी
ने सुना नहीं था। चिन्तित इसलिए कि संशयवादी, जैसे मैं, इसे पागलपन कह सकते थे। बाइमुंडी की पहले से ही अजीब सपनों की ख्याति
थी। एक बार उसने सपने में उस चोर को देख लिया था जिसने शादी में गहना चुराया था—और
वह निकली एक सम्मानित औरत। जब गहना उसकी बताई जगह से मिल गया, तब भी उसे कोई श्रेय नहीं मिला। उलटे उस पर शंका हुई कि वह बुरी
आत्माओं के क़ब्ज़े में है और ओझा-वैद्य बुलाने की सलाह
दी गई।
हममें से
कुछ का मानना था कि असली डॉक्टर—जो मन और उसकी कार्यप्रणाली को समझता है—से
परामर्श लेना चाहिए। ओझा का ‘इलाज़’ तो क्रूर होता: काँटों वाले झाड़ू से मारना, किसी परित्यक्त कुएँ का सड़ा पानी पिलाना, यहाँ तक कि बिल्ली की लीद निगलवाना ताकि दुष्ट आत्मा निकल जाए! जब
उसने गायों के बारे में कहा और हमने मनोचिकित्सक का सुझाव दिया, तो परिवार उस शब्द से ही भयभीत हो गया। उन्हें लगा यह उनके खानदान पर
धब्बा होगा। नतीजा यह कि बाइमुंडी का कभी इलाज नहीं हुआ।
इसप्रकार कभी-कभी
बाइमुंडी विचित्र सपने देख लेता था, लेकिन
पढ़ाई में पिछड़ गया और मैट्रिक में फेल हो गया। इसके बाद वह अपने घर में बिना
मज़दूरी का नौकर बन गया—सबके हँसी-मज़ाक का पात्र। उसे खाना मिलता, लेकिन तभी जब ‘सामान्य’ बच्चे खा चुके होते; विश्राम की जगह मिलती, लेकिन
बरामदे की ढहती चारपाई पर, जिसकी रस्सियाँ
इतनी ढीली थीं कि बीच का हिस्सा ज़मीन छूता था; कपड़े
मिलते,
लेकिन सिर्फ़ पुराने उतारे हुए; और स्नेह
भी मिलता,
लेकिन टुकड़ों में। अंततः उपेक्षा ने उसके हिस्से के थोड़े-से प्रेम
को भी ढँक लिया।
बुज़ुर्गों
की चेतावनी के बावजूद—कि जो कोई गायों की बातें सुनेगा, वह जीवनभर दुख झेलेगा, यहाँ तक
कि अकाल मृत्यु का शिकार होगा—मैंने बाइमुंडी से विस्तार से बताने को कहा। उसने
बताया कि गायें आपस में चराई पर चर्चा कर रही थीं: कहाँ घास स्वादिष्ट थी, और सुरक्षा के लिए साथ कैसे रहें। एक बात सबसे अलग थी।
एक गाय, जो कोने में लकड़ी और उपले के ढेर के पास बँधी थी, शिकायत कर रही थी कि उसे पानी नहीं मिला। घर की औरत उससे पानी पिलाना
भूल गई थी। वह गाय उसे श्राप देने ही वाली थी कि एक बुज़ुर्ग गाय ने उसे रोका।
उसने समझाया कि औरत थकी हुई थी और भूल उसकी मजबूरी में हुई थी, इसलिए इस बार उसे क्षमा कर देना चाहिए।
उसने यह
बात सिर्फ़ दो लोगों को बताई—मुझे और उसी औरत को। औरत चौंक गई, अपनी भूल मानी और वादा किया कि आगे से सावधान रहेगी। उसने वादा निभाया
या नहीं,
मुझे पता नहीं। लेकिन उसका तत्काल पछतावा मेरे लिए ‘मूर्ख’ कहे गए
लड़के की बात सच साबित करने के लिए काफ़ी था।
फिर भी, मैं संशय में ही रहा। मान लेना आसान था कि यह सब झूठ है, क्योंकि परिवार ने भी इसे हँसी में टाल दिया। बाद में जब मैंने
जगदीशचन्द्र बोस का शोध पढ़ा कि पेड़-पौधे भी संवाद करते हैं, तो मैंने कभी नहीं पूछा: अगर पेड़ कर सकते हैं, तो गायें क्यों नहीं? जब मैंने बोलता
हुआ तोता देखा, तब भी वह बचपन की याद नहीं लौटी।
पचास साल
बीत चुके हैं उस रात के बाद जब गायें बोली थीं। दुनिया बदल चुकी है। आज कहा जाता
है कि हक़ीक़त इस पर निर्भर करती है कि हम उसे कैसे देखते हैं—हम वही देखते हैं
जिसकी हमें उम्मीद होती है, न कि हमेशा वही जो
वस्तुतः विद्यमान है। विज्ञान भी रहस्यमय ढंग से यही संकेत देता है। डबल-स्लिट प्रयोग में, रोशनी कभी लहर की तरह बर्ताव करती है, कभी कण की
तरह—यह केवल इस पर निर्भर करता है कि उसे देखा जा रहा है या नहीं। ठीक वैसे ही
जैसे कहावत है: “निगरानी
में रखा बर्तन देर से उबलता है”—हमारी
नज़र पड़ते ही घटनाएँ बदल जाती हैं।
मैंने एक
फ़िल्म देखी जिसमें जन्म के समय बिछड़े जुड़वाँ भाई दिखाए गए थे और उनमें से एक को
चोट लगने पर दूसरा भी दर्द महसूस करता था। मुझे लगा यह सिर्फ़ एक दकियानूसी
विश्वास का सिनेमाई विस्तार है। बाद में
मैंने जाना कि क्वांटम सिद्धान्त में भी एक ऐसा ही रहस्य है। दो कण अगर उलझे (entangled)
हों, तो वे लाखों
प्रकाश-वर्ष दूर रहकर भी एक-दूसरे को तुरंत प्रतिबिंबित करते हैं। यह जुड़वाँ
बच्चों जैसा तो नहीं है कि वे एक-दूसरे का दर्द महसूस करें, लेकिन लोककथा और भौतिकी की गूँज में एक अद्भुत समानता है।
इतिहास
में अलग नज़रिये को ख़ामोश करने का सबसे आसान तरीका रहा है—उसे कह देना कि वह
मूर्ख है। बाइमुंडी भी उसका एक उदाहरण हो सकता है—कौन इनकार करेगा?
उलझन?
मुझे भी
है।
एक लड़के
से,
जो बाड़ पर बैठा दोनों तरफ ताकता रहा, इस
साठ-पार आदमी तक की यात्रा मैंने पूरी की है। आज भी परस्पर-विरोधी सच्चाइयों को
स्वीकार करने की चुनौती से जूझ रहा हूँ। विज्ञान अपनी उलझी व्याख्याओं से मुझे
चकरा देता है, और धर्म मुझे और भी आसानी से भटका देता
है। लगता है, दुनिया बदली तो है, पर उतनी भी नहीं।
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By
अनन्त नारायण नन्द
07-10-2025
बालासोर
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