The Unadorned

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बच्चों की पंचायत

 


बच्चों की पंचायत

बच्चों को एक अजीब-सी छूट मिली होती है। वे जो चाहें, आज़मा सकते हैं—अगर बड़ों के सामने नहीं (क्योंकि वहाँ टोके जाने का डर होता है), तो उनके न रहने पर तो ज़रूर। यह दरअसल मनुष्य की स्वाभाविक आज़ादी की पहली झलक है, जो धीरे-धीरे अपनी पहचान जताने की तैयारी में रहती है।

लेकिन बड़े भी कम चालाक नहीं। जब किसी धार्मिक मनाही या सामाजिक वर्जना से टकराते हैं, तो इसी ‘बचपन की छूट’ का सहारा लेते हैं। जैसे, भगवान के कमरे में तिलचट्टा मारने का मामला। जो लोग अहिंसा में गहरी आस्था रखते हैं, उनके लिए यह तो पाप का पाप है—और वह भी वहीं, जहाँ ईश्वर की उपस्थिति मानी जाती है! तो एक समझौता होता है—एक बच्चा, मासूमियत का साक्षात अवतार, इस “निषिद्ध कर्म” के लिए तैयार किया जाता है। उसे थोड़ी-सी रिश्वत दी जाती है—कभी चॉकलेट का पैकेट, कभी खिलौना बंदूक़ का वादा। बच्चा झट से कीटनाशक की डिब्बी उठाता है, भगवान की मूर्ति के आस-पास छिड़क देता है, और फिर इनाम लेने दौड़ पड़ता है।

सौदा दोनों के लिए फ़ायदेमंद—बड़े साहब पर भगवान का कोई आरोप नहीं रहता, और बच्चा मासूमियत की ओट में ‘मज़ेदार अपराध’ कर जाता है।

लेकिन सवाल यह है—यह छूट आख़िर कितने दिन चलती है?

कुछ बड़े तो उम्रभर सबको बेटा” कहकर पुकारते रहते हैं, चाहे वह “बेटा” अब खुद किसी का बाप क्यों न बन गया हो। मगर मेरी कहानी ऐसे बड़ों की नहीं है। यह चार किशोरों की कहानी है—गाढ़े दोस्त, एक-दूसरे के बिना अधूरे। उनका नारा था: साथ डूबेंगे, साथ तैरेंगे।”
चारों के नाम भी पौराणिक—भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव। संयोग से उनकी माताएँ भी लगभग एक ही समय गर्भवती हुई थीं, तो शायद इसीलिए नामकरण भी परामर्श से हुआ!

वे सब मछली खाने वाले घरों के थे। उनकी दोस्ती में शरारत, गोपनीयता और निष्ठा की अनकही कसम घुली थी। हर शाम वे अपने कुत्ते टिपू के साथ गाँव के चरागाह की ओर निकल जाते। वहाँ बैठकर वे वही बातें करते जिन पर खुलकर चर्चा करना मना था—ज़िंदगी, औरत-मर्द, पैसा, और बड़े लोगों की रहस्यमयी दुनिया।

जब किसी सवाल का जवाब नहीं मिलता, तो वे झट भूल जाते और वही करते जो उनके वश का था—जंगली बेर बटोरना, कुश्ती लड़ना या उल्टे-सीधे अंदाज़ में तैरना, जो किसी खेल प्रतियोगिता में तो नामंज़ूर ही होता।

कभी-कभी वे किसी से बड़ी मेहनत से उधार ली गई चालीस पन्नों की किताब बाँटकर पढ़ते—पहले साथ में, फिर बारी-बारी घर ले जाकर। किताबें और भी जिज्ञासाएँ जगातीं—क्यों लड़कियाँ सीधे लड़कों से बात नहीं कर सकतीं? और क्यों उनके बारे में सोचना ही ‘ग़लत’ माना जाता है?

उनके दिमाग़ में सवालों की भरमार रहती—कैसे इतना पैसा जुटाएँ कि ठेले पर मिलने वाले गरमागरम पकौड़े खा सकें? पतंग और साइकिल कैसे ख़रीदें? और स्कूल समय पर कैसे पहुँचा जाएजबकि रास्ते में उन ठिकानों पर भी चक्कर लगाना हो जहाँ किसी बड़े की नज़र न पहुँचती हो?

एक दिन चारों तालाब के किनारे पहुँचे। पहला सवाल उठा—“इसकी गहराई कितनी होगी?”

भीम बोला, “कम-से-कम पंद्रह फीट।”

अर्जुन बोला, “नहीं, चौदह फीट से ज़्यादा नहीं।”

नकुल ने अंदाजा लगाया, “दो फीट से ज़्यादा तो नहीं होगी।”

सहदेव, जो अपने को ‘समूह का गणितज्ञ’ मानता था, बोला—“तो चलो औसत निकाल लेते हैं—दस फीट पक्का!”

अब जिसने सबसे कम अनुमान लगाया था, यानी नकुल, उसी को पानी में उतरने की चुनौती दी गई। अगर तेरा अंदाज़ सही निकला, तो तू हीरो।” नकुल निर्भीक होकर तालाब में उतरा—और वाक़ई सही निकला! पानी बस कमर तक, बीच में कोई तीन फीट। बाक़ी तीनों ने उसकी जीत पर तालियाँ बजाईं, जैसे उसने मरिआना ट्रेंच की गहराई नाप ली हो!

पर जीत की जगह जल्द ही साज़िश ने ले ली।

भीम ने धीरे से कहा—“किसी को बताना मत। यहाँ तो मछलियाँ हैं, पकड़ सकते हैं!”

तालाब सार्वजनिक था। उसकी मछलियाँ गाँव के वार्षिक उत्सव के लिए बेची जाती थीं जिससे खुले में नाटक करने वाले दल का ख़र्च निकलता। मगर चारों को इन ‘सामुदायिक नियमों’ से क्या लेना? उन्होंने तय कर लिया—आने वाले रविवार को शाम ढलते ही ‘गुप्त मछली अभियान’ चलाया जाएगा।

मगर मछली पकाने की जगह? माँ-बाप को बताना मना—क्योंकि ‘पकड़ी गई मछली’ से ज़्यादा डर तो बदनामी का था। सोचा-विचारा गया, और आख़िर योजना बनी—चरागाह के सिरे पर बसे भिखारी के झोंपड़े में। वह कभी-कभी वहीं रहता था। संयोग से उस शाम झोंपड़े में मौजूद भी था। उससे बस इतना पूछा गया—“अगले रविवार को यहीं रहोगे न?” भिखारी ने कहा—“हाँ।” बाक़ी कोई विवरण नहीं बताया गया—आख़िर ‘ऑपरेशन फिश’ गोपनीय था!

रविवार को सूरज ढलते ही चारों तालाब में उतरे। किस्मत देखिए—एक बड़ी कतला मछली, डेढ़ किलो की, अर्जुन के पैरों के नीचे आ गई। उसे पकड़ना इतना आसान जैसे पेड़ की नीचीली डाली से अमरूद तोड़ना!

वे मछली लेकर भिखारी के पास पहुँचे। उसने आग जलाकर उसे भून दिया। पूछता रहा, “कहाँ से मिली?” चारों चुप। उसे शक हुआ, पर उसने कुछ नहीं कहा।

जब मछली पककर तैयार हुई, तो चारों ने बस नमक डालकर उसे ऐसे खाया जैसे जीवन की सबसे बढ़िया दावत हो। न तेल, न मसाला—फिर भी स्वाद लाजवाब! सिर बचा था—वह भिखारी के लिए छोड़ दिया गया। भिखारी ने मना कर दिया—“पहले भगवान को भोग लगाऊँगा, फिर खाऊँगा।”

सहदेव के मन में शक हुआ—वह खुद क्यों नहीं खा रहा? बार-बार पूछ भी तो वही रहा था कि मछली कहाँ से आई! कहीं भेद खोलने की तो नहीं सोच रहा?

अगले ही दिन शक सही निकला। भिखारी गाँव के मुखिया के पास पहुँचा और शिकायत कर दी। मुखिया शायद नज़रअंदाज़ कर देता, मगर उस वक़्त बरामदे पर चार–पाँच ‘बड़े लोग’ बैठे थे। बात फैल गई। भिखारी को वादा मिला—अगर वह दोषियों की पहचान कर दे, तो तीन किलो चावल इनाम में मिलेंगे।

अगले दिन स्कूल की छुट्टी के वक़्त, उसने दूर से ही चारों को पहचान लिया। सौदा पक्का।

गाँव की पंचायत बुलाई गई। चारों ने अपराध स्वीकार किया, हालाँकि अर्जुन ने बड़ी बेपरवाही से कहा—मछली तो मेरे पाँव के नीचे आ गई थी, अब बताइए, पकड़ता नहीं तो क्या करता?”

बड़ों को यह सफ़ाई पसंद नहीं आई। मामला साबित हुआ। अब सवाल सज़ा का था।

एक बुज़ुर्ग उठे—सज़ा सुनाने ही वाले थे कि मुखिया ने रोक दिया।

वह बोले—

अगर हम बच्चा खुले में छोड़ दें और चुड़ैल उठा ले जाए, तो दोष किसका? तालाब उथला इसलिए है कि हमने खुद उसे गहरा नहीं किया। अब हर घर का एक आदमी दस दिन मेहनत करेगा और इसे गहरा करेगा।”

सबने हामी भरी।

फिर मुखिया बोले—

बच्चा तो हमेशा मासूम होता है। क्या हम पेठा काटने के लिए बच्चे को नहीं बुलाते? क्योंकि वह प्रतीकात्मक बलि मानी जाती है, और औरतें उसे पहली बार कट नहीं लगातीं। बच्चा काट देता है—उसे पाप नहीं लगता, और फिर औरत को भी पेठा काटने में पाप नहीं लगता। तो अगर इन चार बच्चों ने मछली पकड़ ली, तो इन्हें सज़ा क्यों? जब निषिद्ध काम करवाना होता है तो इन्हें ‘मासूम’ मानते हो, और जब यही मासूम अपनी जिज्ञासा में कुछ कर बैठते हैं, तो सब नियम याद आ जाते हैं!”

उन्होंने आगे कहा—

कल सब मिलकर तालाब की सारी मछलियाँ पकड़ेंगे। हर घर से दो किलो चावल आएगा। इस बार का भोज बच्चों के नाम होगा—सिर्फ़ बच्चों के।”

किसी ने विरोध नहीं किया।

अगली शाम गाँव में जश्न था—मछली झोल, मछली फ्राई और चारों तरफ़ मछली की ख़ुशबू! बच्चों की हँसी मंदिर की घंटियों से ज़्यादा गूँज रही थी। चारों ‘दोषी’ अब गाँव के हीरो बन गए थे।

बालपन की वही छूट—फिर एक बार काम आ गई।

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By

अनन्त नारायण नन्द 

भुवनेश्वर 

14-10-2025 

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